बेटे के इलाज के लिए हाई कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद पिता को मिली सरकारी मदद
बिलासपुर
मेरा यादगार मुकदमा असाध्य बीमारी से ग्रसित था बेटा, सरकार की बेरुखी के कारण परेशान हो गया था सीआरपीएफ जवान आप कल्पना नहीं कर सकते कि बुढ़ापे का सहारा बनने वाला बेटा असाध्य बीमारी से ग्रसित हो जाए और उसके इलाज के लिए पिता को दर-दर की ठोकरें खाना पड़े तब उनकी क्या हालत रही होगी। वह भी तब जब वह सरकारी नौकरी में रहा हो।
बेटा अस्पताल में जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष कर रहा था और पिता अपनी ड्यूटी भी मुस्तैदी के साथ निभा रहा था। नौकरी करना उनकी मजबूरी भी थी। अवकाश पर चले आते तो बेटे का इलाज कैसे होता। शासकीय सेवा में होने के बाद विभागीय अफसरों की संवेदनशीलता नहीं जागी। चिकित्सा सुविधा मिलने के बाद सरकार की तरफ से फंड नहीं मिल रहा था।
छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट में उनकी ड्यूटी लगी थी। साथियों के साथ बैठे-बैठे अपनी विवशता पर रोते रहता था और बेटे के जीवनदान के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते रहता था। बेटे की बीमारी असाध्य थी। अप्लास्टिक एनीमिया से ग्रसित था। बोन मैरो ट्रांसप्लांट में लाखों रुपये खर्च होना था। बेटे को एक-एक दिन मृत्यु की ओर जाते देख उनकी स्थिति और भी खराब हो रही थी। मैंने उनका मुकदमा निश्शुल्क लड़ा। राहत की बात ये कि चिकित्सा सुविधा के लिए हाई कोर्ट के निर्देश के बाद सरकार ने फंड जारी किया। यह कहना है छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट की अधिवक्ता निरुपमा वाजपेयी का।
अधिवक्ता निरुपमा वाजपेयी बताती हैं कि यह मामला वर्ष 2005 का है। 18 साल बाद भी जब मुकदमें की याद आती है तो मन भर जाता है। संतुष्टि इस बात की है कि बेटे के इलाज के लिए पिता को सरकार की तरफ से फंड जारी करा पाया। सरकार की तरफ से फंड जारी होने के बाद बेटे का बोन मैरो ट्रांसप्लांट हुआ। अफसोस इस बात का आपरेशन सफल नहीं हो पाया।
जरा कल्पना कीजिए अगर सरकार की तरफ से मदद नहीं मिल पाती जो याचिकाकर्ता सीआरपीएफ जवान का अधिकार है तो बिना ट्रांसप्लांट कराए अगर बेटे की मौत हो जाती तो उस पिता के दिल पर क्या गुजरता। वो तो जीते जी मर ही जाते। मन में यह ग्लानि तो नहीं रहेगी कि बेटे के जीवन बचाने के लिए कुछ कर नहीं पाया। उनके संघर्ष से विभाग के अन्य जवानों के लिए रास्ता खुल गया है।
कर्ज में डूब गया था पिता
अधिवक्ता वाजपेयी बताती हैं कि सीआरपीएफ जवान को जब बेटे को अप्लास्टिक एनीमिया बीमारी की जानकारी मिली तब वे परेशान हो गए थे। तब छत्तीसगढ़ में इस बीमारी का इलाज भी नहीं हो पाता था। नागपुर के अस्पताल में बेटे का इलाज करा रहे थे। गंभीर बीमारी के साथ ही इलाज में राशि भी खर्च हो रही थी।
स्थिति ऐसी हो गई थी कि बेटे के इलाज के लिए कर्ज में भी राशि नहीं मिल पा रही थी। उनकी हालत देखकर मदद करने की ठानी और पूरा मामला मैंने निश्शुल्क लड़ा। उस समय छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट के सीनियर एडवोकेट और वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस प्रशांत मिश्रा ने मेरी काफी मदद की। याचिका तैयार करने से लेकर हाई कोर्ट में पैरवी के दौरान में उनका मार्गदर्शन मिला।
पिता के संघर्ष से जवानों के लिए खुला रास्ता
छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट की अधिवक्ता निरुपमा वाजपेयी का कहना है कि एक पिता ने अपने बेटे की जीवन रक्षा के लिए जो संघर्ष किया वे हमेशा के लिए यादगार बन गया है। उनके संघर्ष और कानूनी लड़ाई के बाद छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने जो व्यवस्था दी है कि वह विभाग के अन्य जवानों के लिए राहत वाली बात है। स्वजन के इलाज के लिए उनको तो दर-दर की ठोंकरे खाना नहीं पड़ेगा। कर्ज में राशि लेने की विवशता नहीं रहेगी। जवान के इस संघर्ष से एक रास्ता तो खुल ही गया है। यह भी एक संतुष्टि की बात है।